क्या बैंकों का निजीकरण है विकास की यात्रा ?

किसी देश के आर्थिक विकास के लिए वहाँ के बैंकों का मजबूत होना आवश्यक है। हाल ही में सरकार द्वारा शीतकालीन सत्र में दो सरकारी बैंकों-इंडियन ओवरसीज बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया के निजीकरण के संबंध में बिल पेश किए जाने की आशंका ने देश में एक नया सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या बैंकों का निजीकरण किया जाना चाहिए ?

अगर इस सवाल पर गौर करें तो हमें सबसे पहले इस पहलू पर विचार करना होगा कि हमारे बैंकों की वैश्विक स्थिति क्या है? यदि आंकड़ों की बात करें तो आर्थिक सर्वे 2019-20 के अनुसार विश्व के शीर्ष 100 बैंकों में भारत का केवल एक ही बैंक है जबकि भारतीय अर्थव्यवस्था के आकार के हिसाब से इसकी संख्या 6 होनी चाहिए। वहीं चीन के शीर्ष 100 में 18 बैंक हैं। यदि हमें शीर्ष 100 में बैंकों की संख्या बढ़ानी है तो हमें भारतीय बैंकों की दक्षता को बढ़ानी होगी।

यदि सरकारी बैंकों की कार्य कुशलता की बात करें तो उसके नतीजे उत्साहजनक नहीं हैं। वर्ष 2019 में सरकारी बैंकों की सामूहिक नुकसान 66000 करोड़ रुपये से अधिक थी वहीं बैंकिंग धोखाधड़ी के 85% मामले सरकारी बैंकों में हुए और एनपीए 7.4 लाख करोड़ रुपये हैं। जो  यह दिखाता है कि सरकारी बैंक संकट के दौर से गुजर रहे हैं। सरकारी बैंकों के पिछड़ जाने के कारणों पर यदि विचार करें तो इन बैंकों के पास बूढ़ी हो रही कर्मचारियों की फौज है जिन्होंने टेक्नोलॉजी तो अपना ली है लेकिन उसे पूरी तरह से सीख नहीं सके। जिसके कारण निर्णयों में नवाचार का अभाव रहता है वहीं निजी बैंक तकनीकी रूप से कुशल, निर्णय कम परिचालन लागत और त्वरित निर्णय से युक्त होते हैं।

आंकड़े बाताते है कि निजी क्षेत्र के बैंक कार्य कुशलता की दृष्टि से सरकारी बैंकों से बेहतर है। आर्थिक सर्वे 2019-20 के अनुसार केंद्र द्वारा सरकारी बैंकों में निवेश किए गए प्रत्येक एक रुपए में 23 पैसे का घाटा हुआ जबकि 1991 के उदारीकरण के बाद नए प्राइवेट बैंकों ने 9.6% का लाभ कमाया है। यदि हम 2020 के स्टॉक मार्केट आंकड़ों के अनुसार मूल्य की तुलना करें तो प्राइवेट बैंकों में किया गया निवेश सरकारी बैंक में किए गए निवेश से 5 गुना अधिक था।

किंतु निजी बैंक भी समस्यारहित नहीं है क्योंकि भारत में बैंकों को केवल आर्थिक परिपेक्ष से ही नहीं देखा जाता बल्कि इनकी सामाजिक भूमिका भी है। समाज के एक बड़े वर्ग को मुख्य धारा में लाने के लिए सरकारी बैंक अधिक सहायक रहे हैं। कृषि, MSME, आवास और अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक आदि को ऋण प्रदान करने में सरकारी बैंक आगे रहे हैं। साथ ही सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कई विकास कार्यक्रमों जैसे जन धन योजना, प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

ऐसे में एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि सरकारी बैंकों के अभाव में क्या निजी बैंक अपनी सुविधाएं कम दरों में जनता को देते रहेंगे? इसके साथ नौकरियों से जुड़ा मुद्दा भी है कि आज बैंक भारत में एक बड़ा नौकरी प्रदाता है क्या आगे भी रहेगा?

सरकारी बैंक जिनकी बाजार में हिस्सेदारी 70% है, इसको कम करते हुए निजी क्षेत्र द्वारा भरपाई करनी चाहिए और सरकारी बैंकों को समाप्त ना करते हुए इनकी कार्यकुशलता की कमियों को दूर करने का प्रयास किया जाना चाहिए। सरकारी और निजी क्षेत्र के बैंक दोनों की प्रतिस्पर्धा आवश्यक है लेकिन दोनों एक दूसरे के विकल्प नहीं बल्कि सहयोगी हों।

शुक्रिया.

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